इक्कीसवीं सदी में भी दहेज ! "एक भयानक कुप्रथा"

जब दुनिया डिजिटल हो रही है, जब लोग दुनिया को जेब में रखकर घूम रहे हैं, दुनिया के किसी भी कोने की कैसी भी खबर पाना चंद सेकेंडो का खेल हो गया है, कही भी जाने का रास्ता, ट्रैफिक, वाहन इत्यादि जरूरतों की चीजों को लोग मोबाइल से घर बैठे कंट्रोल कर रहे हैं और जिन सफर में कभी लोगों को कई दिन लगा करते हैं, उन सफर को लोग आज कुछ घन्टो में तय कर रहे हैं, दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है और "सब कुछ परिवर्तनशील है यह अकाट्य सत्य तथागत बुद्ध जी का है" ।

लेकिन इस डिजिटलिकरण के दौर में हमारे देश के युवा एवं भूतपूर्व युवा दोनों अधिकांशतः एक जटिल समस्या से जकड़े हुए नजर आते हैं और वह है "दहेज कुप्रथा" इस विषय पर जब निबन्ध लिखने को आता है तब लोग 3 - 5 पेज का सुलेख बेहतरीन शब्दों से सजाते हैं, मानो की इस कुप्रथा के घोर विरोधी यही हों, लेकिन कुछ समय बाद जब यही IAS, PCS, डॉक्टर, इंजीनियर इत्यादि कुछ बनकर निकलते हैं तो यही लोग इस दहेज जैसी कुप्रथा के सबसे बड़े शोषक निकलते हैं, यहीं पर दूसरी तरफ भूतपूर्व युवा यानी की पिछली पीढ़ी जब इनकी ( बुजुर्ग, समाज सुधारक, नेता, सामाजिक संगठन के लोग) बातें सुनो तब भी आपको लगेगा कि हमारे देश में अब ऐसी कोई कुप्रथा है ही नहीं लेकिन जब यही अपने बेटे की शादी करते हैं तो ये बेनकाब हो जाते हैं ।

तो हमारे देशवासियों एवं सत्ताशीन शासकों आप और हम सब की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि आज के इस सफलता के दौर में इस सब से ऊपर उठकर सोचने और करने की जरूरत है ।

       _शाक्य अरविन्द मौर्य_

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