लखनऊ, 8 जनवरी। प्रोफेसर राबिन वर्मा को आख़िरकार ज़मानत मिल गई। मिलनी ही थी। पहली सुनवाई में ही उनके वकील कमलेश के तर्कों के सामने पुलिस-प्रशासन की बोलती बंद हो गई। एक बार फिर साबित हो गया कि 19 दिसंबर की हिंसा के बहाने पुलिस ने किस तरह गरीब मुसलमानों के अलावा उन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर भी निशाना साधा जो नागरिकता संशोधन क़ानून को विभाजनकारी और सांप्रदायिक मानते हैं।
प्रोफेसर राबिन को 20 दिसंबर की शाम भाजपा मुख्यालय के ठीक बगल स्थित जलपान की दूकान से उठाया गया था। वह अंग्रेज़ी अख़बार द हिंदू के रिपोर्टर ओमार राशिद के साथ थे। ओमार राशिद कश्मीरी हैं। उनके कश्मीरी चेहरे के आधार पर पुलिस ने उन्हें संदिग्ध माना। पूछताछ के नाम पर उनके साथ बदसलूकी की। 19 दिसंबर की हिंसा की साज़िश करने की तोहमत लगाते हुए उनका मोबाइल भी छीन लिया। प्रोफेसर राबिन ने इसका तीखा विरोध किया तो उन्हें बुरी तरह पीटा गया। दोनों को हज़रतगंज कोतवाली ले जाया गया। इस बीच किसी तरह इस पुलिसिया करतूत की ख़बर बाहर आ गई। दबाव बना तो दो घंटे बाद ओमार राशिद को छोड़ दिया गया लेकिन राबिन को बिठाये रखा गया। लेकिन पुलिसिया रिपोर्ट में उनकी गिरफ़्तारी अगले दिन 21 दिसंबर को दिखाई गई और उसके अगले दिन उन्हें जेल भेज दिया गया।
पुलिस की ताल में ताल मिलाते हुए मीडिया के एक हिस्से ने राबिन को खलनायक के बतौर पेश कर दिया। झूठी ख़बर परोसी गई कि उन्होंने 19 दिसंबर की हिंसा की साज़िश रची, कि इसके लिए कश्मीर से पत्थरबाज़ बुलाये और उन्हें विभिन्न होटलों में ठहराने का बंदोबस्त किया, वगैरह-वगैरह। इस तरह उम्दा शिक्षक के साथ ही इंसाफ़ और इंसानियत के पैरोकार की उनकी उजली छवि को कलंकित किया गया। उन पर 18 संगीन धाराओं के तहत झूठा मुक़दमा दर्ज़ किया गया। यह रिहाई मंच को सबक़ सिखाने की भी कवायद थी जो योगी सरकार की जनविरोधी कार्रवाइयों के ख़िलाफ़ लगातार सवाल उठाता रहा है।
उधर शिया डिग्री कालेज ने प्रोफेसर राबिन को बिना देरी किए और बगैर उनका पक्ष जाने हिंसा में शामिल होने की पुलिसिया कहानी के आधार पर उन्हें नौकरी से बाहर कर दिया। लेकिन यह बड़ी बात है कि दुख और मुसीबत की इस घड़ी में परिवार ने संयम नहीं खोया। मां विद्या देवी ने कहा कि उन्होंने अपने बच्चों को सच को सच और गलत को गलत कहना सिखाया। उन्हें गर्व है कि उनका बेटा हमेशा इसी सीख पर चला और इसके लिए जेल भी चला गया। उनकी ढाई साल की पोती अपने पिता को लगातार गायब देख ज़रूर गुमसुम रही। कोई तीन महीने का पोता भी पिता के प्यार से वंचित हो गया। ज़्यादा दुख इसी बात का है।
इंसानी बिरादरी के दल ने प्रोफेसर राबिन के परिवार की इस समझ और बहादुरी को सलाम किया। भरोसा दिलाया कि इंसाफ़ की इस लड़ाई में परिवार अकेला नहीं है, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष लोग साथ खड़े हैं। इस दल में शिक्षक प्रवीण श्रीवास्तव, प्रबंधन के शोध छात्र सय्यद ज़ुल्फिकार और सृजनयोगी आदियोग शामिल थे।
द्वारा:
अनूप मिश्रा
इंसानी बिरादरी
9415011487-7380447216
प्रोफेसर राबिन को 20 दिसंबर की शाम भाजपा मुख्यालय के ठीक बगल स्थित जलपान की दूकान से उठाया गया था। वह अंग्रेज़ी अख़बार द हिंदू के रिपोर्टर ओमार राशिद के साथ थे। ओमार राशिद कश्मीरी हैं। उनके कश्मीरी चेहरे के आधार पर पुलिस ने उन्हें संदिग्ध माना। पूछताछ के नाम पर उनके साथ बदसलूकी की। 19 दिसंबर की हिंसा की साज़िश करने की तोहमत लगाते हुए उनका मोबाइल भी छीन लिया। प्रोफेसर राबिन ने इसका तीखा विरोध किया तो उन्हें बुरी तरह पीटा गया। दोनों को हज़रतगंज कोतवाली ले जाया गया। इस बीच किसी तरह इस पुलिसिया करतूत की ख़बर बाहर आ गई। दबाव बना तो दो घंटे बाद ओमार राशिद को छोड़ दिया गया लेकिन राबिन को बिठाये रखा गया। लेकिन पुलिसिया रिपोर्ट में उनकी गिरफ़्तारी अगले दिन 21 दिसंबर को दिखाई गई और उसके अगले दिन उन्हें जेल भेज दिया गया।
पुलिस की ताल में ताल मिलाते हुए मीडिया के एक हिस्से ने राबिन को खलनायक के बतौर पेश कर दिया। झूठी ख़बर परोसी गई कि उन्होंने 19 दिसंबर की हिंसा की साज़िश रची, कि इसके लिए कश्मीर से पत्थरबाज़ बुलाये और उन्हें विभिन्न होटलों में ठहराने का बंदोबस्त किया, वगैरह-वगैरह। इस तरह उम्दा शिक्षक के साथ ही इंसाफ़ और इंसानियत के पैरोकार की उनकी उजली छवि को कलंकित किया गया। उन पर 18 संगीन धाराओं के तहत झूठा मुक़दमा दर्ज़ किया गया। यह रिहाई मंच को सबक़ सिखाने की भी कवायद थी जो योगी सरकार की जनविरोधी कार्रवाइयों के ख़िलाफ़ लगातार सवाल उठाता रहा है।
उधर शिया डिग्री कालेज ने प्रोफेसर राबिन को बिना देरी किए और बगैर उनका पक्ष जाने हिंसा में शामिल होने की पुलिसिया कहानी के आधार पर उन्हें नौकरी से बाहर कर दिया। लेकिन यह बड़ी बात है कि दुख और मुसीबत की इस घड़ी में परिवार ने संयम नहीं खोया। मां विद्या देवी ने कहा कि उन्होंने अपने बच्चों को सच को सच और गलत को गलत कहना सिखाया। उन्हें गर्व है कि उनका बेटा हमेशा इसी सीख पर चला और इसके लिए जेल भी चला गया। उनकी ढाई साल की पोती अपने पिता को लगातार गायब देख ज़रूर गुमसुम रही। कोई तीन महीने का पोता भी पिता के प्यार से वंचित हो गया। ज़्यादा दुख इसी बात का है।
इंसानी बिरादरी के दल ने प्रोफेसर राबिन के परिवार की इस समझ और बहादुरी को सलाम किया। भरोसा दिलाया कि इंसाफ़ की इस लड़ाई में परिवार अकेला नहीं है, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष लोग साथ खड़े हैं। इस दल में शिक्षक प्रवीण श्रीवास्तव, प्रबंधन के शोध छात्र सय्यद ज़ुल्फिकार और सृजनयोगी आदियोग शामिल थे।
द्वारा:
अनूप मिश्रा
इंसानी बिरादरी
9415011487-7380447216