मिथक व किंवदंतियों से परे वर्तमान में प्रचलित कुम्भ पर्व का अपना इतिहास भी है। इस समय कुम्भ मेला चल रहा है, इसलिए इसके बारे में सही तथ्य जानना जरूरी है और यह भी जानना जरूरी है कि कैसे प्राचीन महादान पर्व आज कुम्भ मेला के रूप में दूषित हो रहा है।
इस्वी 636 में चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत की यात्रा पर थे। वह महज़ यात्री भर नहीं थे बल्कि वे एक बौद्ध भिक्षु भी थे। विश्व के प्राचीनतम विश्वविद्यालय, नालन्दा विश्वविद्यालय, में रह कर उन्होंने बुद्ध धम्म का गहन अध्ययन किया था। चारो तरफ उनकी विद्वता की ख्याति थी। उन्होंने धम्म का बौद्धिक अध्ययन मात्र नहीं किया था बल्कि आध्यात्मिक साधनाओं का गहन अभ्यास भी किया था। उनकी प्रतिभा की चारों ओर चर्चा थी।
न केवल इतना, बल्कि महान भिक्खु ह्वेनसांग ने भगवान बुद्ध के चरण चिन्हों का अनुगमन किया था। जहाँ-जहाँ भगवान बुद्ध ने चारिका की थी, पूरब-पश्चिम-उत्तर -दक्षिण चारों दिशाओं में, लगभग उन सारे स्थानों की पूज्य ह्वेनसांग ने श्रद्धापूर्वक यात्रा की थी। उन सारे स्थानों का विस्तृत विवरण लिपिबद्ध किया था। इस कारण बौद्धकालीन भारत के इतिहास का सबसे प्रमाणिक स्रोत ह्वेनसांग का यात्रा विवरण माना जाता है। आज भी उत्खनन में यदि कहीं बौद्ध अवशेष मिलते हैं तो उसकी पुष्टि ह्वेनसांग के यात्रा विवरणों से की जाती है। आज भूखण्ड पंजीकरण, खसरा-खतौनी, दाखिल-ख़ारिज में मापन की जो पद्यति अपनायी जाती है ह्वेनसांग ने बौद्ध स्थलों के चिन्हीकरण में उन सबका सटीक व बारीक इस्तेमाल किया है। यथा जब कोई भूखण्ड पंजीकृत किया जाता है तो चिन्हांकन के लिए भूखण्ड के पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण दिशा में क्या-क्या है इस विवरण को सन्दर्भ बनाया जाता है जैसे कि, भूखण्ड के सामने सड़क है, पीछे मकान या भूखण्ड है, दाएं-बाएं अमुक भूखण्ड संख्या है। ह्वेनसांग ने इसी पद्यति से दो हजार साल पहले पूरे भारत को नाप लिया, हर बौद्ध तीर्थ का चिन्हांकन किया और इन्हीं चिन्हांकनओं के आधार पर पुरातत्वविद धरतीलुप्त हो चुके बौद्ध स्थलों का उद्धार कर सके।
ब्रिटिश काल में विलियम जोन्स तथा जनरल कनिंघम ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की स्थापना की थी। पुरातात्विक उत्खनन के स्थानों को चिन्हित करने में जनरल कनिंघम को सबसे अधिक मदद ह्वेनसांग के यात्रा विवरणों से मिले थे। आज भारत में जो भी बौद्ध स्थल जीवन्त दिख रहे हैं- बोधगया, श्रावस्ती, सारनाथ, संकिसा, कुशीनगर, सांची, नालन्दा विश्वविद्यालय के अवशेष इत्यादि- सबके उत्खनन में ह्वेनसांग के यात्रा विवरण मुख्य स्रोत रहे हैं।
ह्वेनसांग भारत की यात्रा पर थे। इस्वी 636 में वह कानपुर पहुँचे। उस काल में कानपुर को कान्यकुब्ज कहते थे और ह्वेनसांग ने अपने चीनी उच्चारण में इस समृद्ध नगर को 'कानुकुरो' लिखा है। उस काल में कानुकुरो वस्त्र उत्पादन का महत्वपूर्ण केन्द्र था। ब्रिटिश काल तक वस्त्र उत्पादन के क्षेत्र में कानपुर को भारत का मैनचेस्टर कहा जाता था।
ह्वेनसांग ने विवरण दिया है कि कानपुर में उस समय सौ बुद्ध विहार थे जिनमें दस हजार बौद्ध भिक्षु रहते थे।
ह्वेनसांग कानपुर से कन्नौज पहुँचे। उस समय कन्नौज साम्राज्य पर सम्राट हर्षवर्द्धन का शासन था। जब भिक्खु ह्वेनसांग कन्नौज पहुँचे उस समय सम्राट हर्षवर्द्धन एक विजय अभियान पर बंगाल में थे। ह्वेनसांग चारिका करते हुए असम पहुँच गये जहाँ सम्राट भाष्कर वर्मन का शासन था। सम्राट ने महान भिक्षु ह्वेनसांग का भव्य स्वागत-सत्कार किया।
यह वह काल था जब भारत में सर्वत्र बुद्ध धम्म व्याप्त था। सम्राट अशोक के समय से शुरू हुआ बुद्ध धम्म का स्वर्णिम काल अपने शिखर पर था। सम्राट भी बुद्धानुयायी व बुद्ध धम्म के पोषक थे।
कन्नौज वापस आकर सम्राट हर्षवर्द्धन को जब यह ज्ञात हुआ कि महान बौद्ध भिक्षु ह्वेनसांग उनके साम्राज्य में आकर चले गए हैं तो उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। अपने दूतों के द्वारा उन्हें मालूम हुआ कि ह्वेनसांग अभी आसाम में है। उन्होंने तत्काल सम्राट भाष्कर वर्मन के पास संदेश भेजा कि वह पूज्य ह्वेनसांग को स्वयं लेकर कन्नौज में पधारें। भास्कर वर्मन के साथ सम्राट हर्षवर्द्धन के मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। पूज्य ह्वेनसांग को कन्नौज आमंत्रित करने के लिए उन्होंने अपने साम्राज्य में एक विशाल धम्म परिषद रखी, जिसकी अध्यक्षता के लिए पूज्य ह्वेनसांग को आमंत्रित किया।
पूज्य ह्वेनसांग के विवरण के अनुसार ही कन्नौज की उस धम्म परिषद में उस काल में 20 देशों के राष्ट्राध्यक्ष शामिल हुए तथा पूरे भारत से 30000 बौद्ध भिक्षु एकत्रित हुए। यह परिषद 18 दिन चली। आज भी यह विवरण पढ़ कर गर्व होता है कि भारत की एक धम्म परिषद में 20 देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए और तीस हजार भिक्खु सम्मिलित हुए। 18 दिन तक निरंतर चलने वाली इस धम्म परिषद में हजारों की संख्या में उपासक-उपासिकाओं ने धम्म सेवा की, भिक्खुओं को भोजन दान दिया, वस्त्र दान किया, औषधि दान किया, अष्ट परिष्कार दान किया। 30000 बौद्ध भिक्षुओं को कानपुर और कन्नौज के वस्त्र व्यापारियों ने चीवर दान किया क्योंकि कन्नौज और कानपुर उस समय वस्त्र उत्पादन का प्रमुख केंद्र था। जिन श्रद्धालु लोगों ने विशाल भिक्खु संघ को चीवर दान किया, श्रद्धा और भक्ति से पूज्य भिक्खु संघ को दान दिया, धम्म सेवा की|
कन्नौज की महान धम्म परिषद के उपरान्त महान भिक्षु ह्वेनसांग स्वदेश अर्थात चीन लौट जाने को तत्पर हुए तो सम्राट हर्षवर्द्धन ने उनसे पुनः कुछ और दिन रुक जाने का आग्रह किया।
भिक्खु को कोई रोटी और कपड़े के लिए न बुला सकता है, न रोक सकता है। भिक्खु को सिर्फ धम्म के लिए बुलाया जा सकता है और सिर्फ धम्म के लिए रोका जा सकता है।
महान भिक्षु ह्वेनसांग को कुछ और दिन भारत में रोक लेने के लिए बौद्ध श्रद्धालु सम्राट शीलादित्य, जो इतिहास में हर्षवर्द्धन के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं, ने अपने राज्यान्तर्गत प्रयाग के तट पर एक "महादान परिषद" का आयोजन किया, सन् 644 में, जिसमें पूज्य भिक्खु संघ को असदृशदान दिया गया जैसा असृदशदान राजा प्रसेनजित, राजा बिम्बिसार के द्वारा भगवान बुद्ध के समय में किया गया था। असृदशदान का वही महान पर्व आज विकृत रूप में "कुम्भ" कहलाता है तथा सम्राट हर्षवर्द्धन ने इसे प्रतिवर्ष दान पर्व और प्रत्येक 12 वर्ष पर महादान पर्व के रूप में स्थापित किया। कहते हैं कि महादान पर्व के अवसर पर हर्षवर्द्धन अपने वस्त्र तक दान कर दिया करते थे. तत्पश्चात उनकी बहन उन्हें वस्त्र प्रदान करती थी। कुम्भ पर्व मौलिक रूप से एक बौद्ध पर्व था, जिसे महादान पर्व कहा जाता था, जो आज अपभ्रंशित स्वरूप में कुंभ के रूप में प्रचलन में दिखता है, जिसमें तमाम बुराईयाँ, अंधविश्वास इत्यादि व्याप्त हो चुकी है। प्रयाग में दो नदियों के संगम पर, आज जहाँ कुंभ मेला का आयोजन होता है, वह सातवीं सदी में बौद्धों की महादान भूमि हुआ करती थी।
प्रयाग में बौद्धों की महादान भूमि का वर्णन ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृत्तान्त में किया है। तब प्रयाग का संगम दस ली के घेरे में विस्तृत था। दूर दूर तक बालू फैला हुआ था। भूमि ऊँची और सुहावनी थी।
प्रयाग की इस महादान भूमि पर दान किए जाने का शुभारंभ बुद्धदेव की मूर्ति के अलंकरण से होता था। हर्षवर्धन ने अनेक श्रमणों को यहाँ दान दिए थे।
इसी प्रयाग के रेतीले तट से ह्वेनसांग ने भारत के प्रतापी वैश्य राजा हर्षवर्धन से विदा ली थी।
दान पर्व जब सम्राट आयोजित कर रहा हो तो पात्र से अधिक अपात्र इकठ्ठा होने लगते हैं। यह सिद्धांत है कि खोटा सिक्का असली मुद्रा को चलन से बाहर कर देता है। अगर किसी की जेब में एक नकली और दूसरी असली मुद्रा हो तो मुद्राधारक का पहला प्रयास रहता है कि नकली मुद्रा चला दी जाए। इस सरल से सिद्धांत के कारण नकली मुद्रा असली मुद्रा को चलन के बाहर कर देती है। कुम्भ पर्व के साथ यही हुआ है। साधु से अधिक असाधु इकट्ठा होने लगे। श्रद्धा पर अंधश्रद्धा का प्रचार होने लगा। इतिहास पर मिथक हावी होने लगा। पराकाष्ठा यहाँ तक हो गयी कि कालान्तर में बौद्ध उपासक-उपासिकाओं तथा भिक्खुओं को बेदखल करने के लिए नग्न स्नान की परम्परा शुरू हुई, नतीजतन साधुओं की कुटियां 'अखाड़े' बन गये, इतिहास पर मिथक हावी हो गया। नग्न स्नान की परम्परा आज भी पूरी दुनिया में भारत का कितना अपमान कराती है कि हर भारत प्रेमी आहत महसूस करता है। नग्न स्नान की इस निर्लज्ज परम्परा ने एक महान आध्यात्मिक पर्व की आध्यात्मिकता और धार्मिकता को तार-तार कर दिया है और यह सब कुछ कथित धर्म के नाम पर हो रहा है, पूरे महिमामण्डन के साथ हो रहा है। किसी कथित धर्म प्रेमी में यह कहने का साहस नहीं है कि यह निर्लज्ज परम्परा कानूनन बन्द किया जाना चाहिए।
उज्जैन के कुम्भ की शुरुआत 18वीं शताब्दी में हुई। मराठा शासक रानोजी शिन्दे ने उज्जैन के एक स्थानीय उत्सव के लिए नासिक से साधुओं को आमंत्रित किया। सम्राट हर्षवर्धन का अनुकरण करते हुए रानोजी शिन्दे ने भी इस उत्सव को महादान का स्वरूप दिया।
मराठा शासक रानोजी शिन्दे की पहल के परिणामस्वरूप कालान्तर में नासिक और उज्जैन के साधुओं की परस्पर प्रतिस्पर्धा ने क्षिप्रा के तट पर उज्जैन में और गोदावरी के तट पर नासिक में कथित कुम्भ की शुरुआत हुई, वहाँ भी 'अमृत' बूंदें गिर गयीं। हरिद्वार के गंगा तट इसका विस्तार सम्राट हर्षवर्धन के समय ही हो चुका था और ब्रिटिश काल तक आते-आते यह एक स्थापित पर्व बन चुका था।
प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डी. पी. दुबे का कथन है: "किसी भी हिन्दू ग्रन्थ में प्रयाग मेला कुम्भ मेला के रूप में दर्ज़ नहीं है।"
'कुम्भ मेला' का पहला लिखित विवरण इस्लामी इतिहास ग्रंथों 'खुलासत-उल-तवारीख'(सन् 1695) और 'चाहर गुलशन'(सन् 1759) में मिलता है।
आधुनिक काल में 'कुम्भ मेला' का सर्वप्रथम उल्लेख ब्रिटिश काल की एक आख्या, रिपोर्ट, में सन् 1868 में "Coomb fair" के रूप में मिलता है जो कि सन् 1870 में होना था। मैक्लियन के विवरणानुसार:" प्रयाग के प्रयागवाल ब्राह्मण ने सर्वप्रथम तीर्थ की महत्ता को महिमाण्डित करने के लिए माघ मेला को कुम्भ के रूप में आत्मसात किया।"
इन ऐतिहासिक तथ्यों के आलोक में देखें तो आज का वर्तमान कुम्भ मौलिक रूप से सर्वप्रथम बौद्धों के द्वारा स्थापित महादान का एक महापर्व था। जिस दिन यह पर्व अपने मौलिक रूप को पुनः उपलब्ध होगा भारत फिर विश्वगुरू होगा।
इस्वी 636 में चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत की यात्रा पर थे। वह महज़ यात्री भर नहीं थे बल्कि वे एक बौद्ध भिक्षु भी थे। विश्व के प्राचीनतम विश्वविद्यालय, नालन्दा विश्वविद्यालय, में रह कर उन्होंने बुद्ध धम्म का गहन अध्ययन किया था। चारो तरफ उनकी विद्वता की ख्याति थी। उन्होंने धम्म का बौद्धिक अध्ययन मात्र नहीं किया था बल्कि आध्यात्मिक साधनाओं का गहन अभ्यास भी किया था। उनकी प्रतिभा की चारों ओर चर्चा थी।
न केवल इतना, बल्कि महान भिक्खु ह्वेनसांग ने भगवान बुद्ध के चरण चिन्हों का अनुगमन किया था। जहाँ-जहाँ भगवान बुद्ध ने चारिका की थी, पूरब-पश्चिम-उत्तर -दक्षिण चारों दिशाओं में, लगभग उन सारे स्थानों की पूज्य ह्वेनसांग ने श्रद्धापूर्वक यात्रा की थी। उन सारे स्थानों का विस्तृत विवरण लिपिबद्ध किया था। इस कारण बौद्धकालीन भारत के इतिहास का सबसे प्रमाणिक स्रोत ह्वेनसांग का यात्रा विवरण माना जाता है। आज भी उत्खनन में यदि कहीं बौद्ध अवशेष मिलते हैं तो उसकी पुष्टि ह्वेनसांग के यात्रा विवरणों से की जाती है। आज भूखण्ड पंजीकरण, खसरा-खतौनी, दाखिल-ख़ारिज में मापन की जो पद्यति अपनायी जाती है ह्वेनसांग ने बौद्ध स्थलों के चिन्हीकरण में उन सबका सटीक व बारीक इस्तेमाल किया है। यथा जब कोई भूखण्ड पंजीकृत किया जाता है तो चिन्हांकन के लिए भूखण्ड के पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण दिशा में क्या-क्या है इस विवरण को सन्दर्भ बनाया जाता है जैसे कि, भूखण्ड के सामने सड़क है, पीछे मकान या भूखण्ड है, दाएं-बाएं अमुक भूखण्ड संख्या है। ह्वेनसांग ने इसी पद्यति से दो हजार साल पहले पूरे भारत को नाप लिया, हर बौद्ध तीर्थ का चिन्हांकन किया और इन्हीं चिन्हांकनओं के आधार पर पुरातत्वविद धरतीलुप्त हो चुके बौद्ध स्थलों का उद्धार कर सके।
ब्रिटिश काल में विलियम जोन्स तथा जनरल कनिंघम ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की स्थापना की थी। पुरातात्विक उत्खनन के स्थानों को चिन्हित करने में जनरल कनिंघम को सबसे अधिक मदद ह्वेनसांग के यात्रा विवरणों से मिले थे। आज भारत में जो भी बौद्ध स्थल जीवन्त दिख रहे हैं- बोधगया, श्रावस्ती, सारनाथ, संकिसा, कुशीनगर, सांची, नालन्दा विश्वविद्यालय के अवशेष इत्यादि- सबके उत्खनन में ह्वेनसांग के यात्रा विवरण मुख्य स्रोत रहे हैं।
ह्वेनसांग भारत की यात्रा पर थे। इस्वी 636 में वह कानपुर पहुँचे। उस काल में कानपुर को कान्यकुब्ज कहते थे और ह्वेनसांग ने अपने चीनी उच्चारण में इस समृद्ध नगर को 'कानुकुरो' लिखा है। उस काल में कानुकुरो वस्त्र उत्पादन का महत्वपूर्ण केन्द्र था। ब्रिटिश काल तक वस्त्र उत्पादन के क्षेत्र में कानपुर को भारत का मैनचेस्टर कहा जाता था।
ह्वेनसांग ने विवरण दिया है कि कानपुर में उस समय सौ बुद्ध विहार थे जिनमें दस हजार बौद्ध भिक्षु रहते थे।
ह्वेनसांग कानपुर से कन्नौज पहुँचे। उस समय कन्नौज साम्राज्य पर सम्राट हर्षवर्द्धन का शासन था। जब भिक्खु ह्वेनसांग कन्नौज पहुँचे उस समय सम्राट हर्षवर्द्धन एक विजय अभियान पर बंगाल में थे। ह्वेनसांग चारिका करते हुए असम पहुँच गये जहाँ सम्राट भाष्कर वर्मन का शासन था। सम्राट ने महान भिक्षु ह्वेनसांग का भव्य स्वागत-सत्कार किया।
यह वह काल था जब भारत में सर्वत्र बुद्ध धम्म व्याप्त था। सम्राट अशोक के समय से शुरू हुआ बुद्ध धम्म का स्वर्णिम काल अपने शिखर पर था। सम्राट भी बुद्धानुयायी व बुद्ध धम्म के पोषक थे।
कन्नौज वापस आकर सम्राट हर्षवर्द्धन को जब यह ज्ञात हुआ कि महान बौद्ध भिक्षु ह्वेनसांग उनके साम्राज्य में आकर चले गए हैं तो उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। अपने दूतों के द्वारा उन्हें मालूम हुआ कि ह्वेनसांग अभी आसाम में है। उन्होंने तत्काल सम्राट भाष्कर वर्मन के पास संदेश भेजा कि वह पूज्य ह्वेनसांग को स्वयं लेकर कन्नौज में पधारें। भास्कर वर्मन के साथ सम्राट हर्षवर्द्धन के मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। पूज्य ह्वेनसांग को कन्नौज आमंत्रित करने के लिए उन्होंने अपने साम्राज्य में एक विशाल धम्म परिषद रखी, जिसकी अध्यक्षता के लिए पूज्य ह्वेनसांग को आमंत्रित किया।
पूज्य ह्वेनसांग के विवरण के अनुसार ही कन्नौज की उस धम्म परिषद में उस काल में 20 देशों के राष्ट्राध्यक्ष शामिल हुए तथा पूरे भारत से 30000 बौद्ध भिक्षु एकत्रित हुए। यह परिषद 18 दिन चली। आज भी यह विवरण पढ़ कर गर्व होता है कि भारत की एक धम्म परिषद में 20 देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए और तीस हजार भिक्खु सम्मिलित हुए। 18 दिन तक निरंतर चलने वाली इस धम्म परिषद में हजारों की संख्या में उपासक-उपासिकाओं ने धम्म सेवा की, भिक्खुओं को भोजन दान दिया, वस्त्र दान किया, औषधि दान किया, अष्ट परिष्कार दान किया। 30000 बौद्ध भिक्षुओं को कानपुर और कन्नौज के वस्त्र व्यापारियों ने चीवर दान किया क्योंकि कन्नौज और कानपुर उस समय वस्त्र उत्पादन का प्रमुख केंद्र था। जिन श्रद्धालु लोगों ने विशाल भिक्खु संघ को चीवर दान किया, श्रद्धा और भक्ति से पूज्य भिक्खु संघ को दान दिया, धम्म सेवा की|
कन्नौज की महान धम्म परिषद के उपरान्त महान भिक्षु ह्वेनसांग स्वदेश अर्थात चीन लौट जाने को तत्पर हुए तो सम्राट हर्षवर्द्धन ने उनसे पुनः कुछ और दिन रुक जाने का आग्रह किया।
भिक्खु को कोई रोटी और कपड़े के लिए न बुला सकता है, न रोक सकता है। भिक्खु को सिर्फ धम्म के लिए बुलाया जा सकता है और सिर्फ धम्म के लिए रोका जा सकता है।
महान भिक्षु ह्वेनसांग को कुछ और दिन भारत में रोक लेने के लिए बौद्ध श्रद्धालु सम्राट शीलादित्य, जो इतिहास में हर्षवर्द्धन के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं, ने अपने राज्यान्तर्गत प्रयाग के तट पर एक "महादान परिषद" का आयोजन किया, सन् 644 में, जिसमें पूज्य भिक्खु संघ को असदृशदान दिया गया जैसा असृदशदान राजा प्रसेनजित, राजा बिम्बिसार के द्वारा भगवान बुद्ध के समय में किया गया था। असृदशदान का वही महान पर्व आज विकृत रूप में "कुम्भ" कहलाता है तथा सम्राट हर्षवर्द्धन ने इसे प्रतिवर्ष दान पर्व और प्रत्येक 12 वर्ष पर महादान पर्व के रूप में स्थापित किया। कहते हैं कि महादान पर्व के अवसर पर हर्षवर्द्धन अपने वस्त्र तक दान कर दिया करते थे. तत्पश्चात उनकी बहन उन्हें वस्त्र प्रदान करती थी। कुम्भ पर्व मौलिक रूप से एक बौद्ध पर्व था, जिसे महादान पर्व कहा जाता था, जो आज अपभ्रंशित स्वरूप में कुंभ के रूप में प्रचलन में दिखता है, जिसमें तमाम बुराईयाँ, अंधविश्वास इत्यादि व्याप्त हो चुकी है। प्रयाग में दो नदियों के संगम पर, आज जहाँ कुंभ मेला का आयोजन होता है, वह सातवीं सदी में बौद्धों की महादान भूमि हुआ करती थी।
प्रयाग में बौद्धों की महादान भूमि का वर्णन ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृत्तान्त में किया है। तब प्रयाग का संगम दस ली के घेरे में विस्तृत था। दूर दूर तक बालू फैला हुआ था। भूमि ऊँची और सुहावनी थी।
प्रयाग की इस महादान भूमि पर दान किए जाने का शुभारंभ बुद्धदेव की मूर्ति के अलंकरण से होता था। हर्षवर्धन ने अनेक श्रमणों को यहाँ दान दिए थे।
इसी प्रयाग के रेतीले तट से ह्वेनसांग ने भारत के प्रतापी वैश्य राजा हर्षवर्धन से विदा ली थी।
दान पर्व जब सम्राट आयोजित कर रहा हो तो पात्र से अधिक अपात्र इकठ्ठा होने लगते हैं। यह सिद्धांत है कि खोटा सिक्का असली मुद्रा को चलन से बाहर कर देता है। अगर किसी की जेब में एक नकली और दूसरी असली मुद्रा हो तो मुद्राधारक का पहला प्रयास रहता है कि नकली मुद्रा चला दी जाए। इस सरल से सिद्धांत के कारण नकली मुद्रा असली मुद्रा को चलन के बाहर कर देती है। कुम्भ पर्व के साथ यही हुआ है। साधु से अधिक असाधु इकट्ठा होने लगे। श्रद्धा पर अंधश्रद्धा का प्रचार होने लगा। इतिहास पर मिथक हावी होने लगा। पराकाष्ठा यहाँ तक हो गयी कि कालान्तर में बौद्ध उपासक-उपासिकाओं तथा भिक्खुओं को बेदखल करने के लिए नग्न स्नान की परम्परा शुरू हुई, नतीजतन साधुओं की कुटियां 'अखाड़े' बन गये, इतिहास पर मिथक हावी हो गया। नग्न स्नान की परम्परा आज भी पूरी दुनिया में भारत का कितना अपमान कराती है कि हर भारत प्रेमी आहत महसूस करता है। नग्न स्नान की इस निर्लज्ज परम्परा ने एक महान आध्यात्मिक पर्व की आध्यात्मिकता और धार्मिकता को तार-तार कर दिया है और यह सब कुछ कथित धर्म के नाम पर हो रहा है, पूरे महिमामण्डन के साथ हो रहा है। किसी कथित धर्म प्रेमी में यह कहने का साहस नहीं है कि यह निर्लज्ज परम्परा कानूनन बन्द किया जाना चाहिए।
उज्जैन के कुम्भ की शुरुआत 18वीं शताब्दी में हुई। मराठा शासक रानोजी शिन्दे ने उज्जैन के एक स्थानीय उत्सव के लिए नासिक से साधुओं को आमंत्रित किया। सम्राट हर्षवर्धन का अनुकरण करते हुए रानोजी शिन्दे ने भी इस उत्सव को महादान का स्वरूप दिया।
मराठा शासक रानोजी शिन्दे की पहल के परिणामस्वरूप कालान्तर में नासिक और उज्जैन के साधुओं की परस्पर प्रतिस्पर्धा ने क्षिप्रा के तट पर उज्जैन में और गोदावरी के तट पर नासिक में कथित कुम्भ की शुरुआत हुई, वहाँ भी 'अमृत' बूंदें गिर गयीं। हरिद्वार के गंगा तट इसका विस्तार सम्राट हर्षवर्धन के समय ही हो चुका था और ब्रिटिश काल तक आते-आते यह एक स्थापित पर्व बन चुका था।
प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डी. पी. दुबे का कथन है: "किसी भी हिन्दू ग्रन्थ में प्रयाग मेला कुम्भ मेला के रूप में दर्ज़ नहीं है।"
'कुम्भ मेला' का पहला लिखित विवरण इस्लामी इतिहास ग्रंथों 'खुलासत-उल-तवारीख'(सन् 1695) और 'चाहर गुलशन'(सन् 1759) में मिलता है।
आधुनिक काल में 'कुम्भ मेला' का सर्वप्रथम उल्लेख ब्रिटिश काल की एक आख्या, रिपोर्ट, में सन् 1868 में "Coomb fair" के रूप में मिलता है जो कि सन् 1870 में होना था। मैक्लियन के विवरणानुसार:" प्रयाग के प्रयागवाल ब्राह्मण ने सर्वप्रथम तीर्थ की महत्ता को महिमाण्डित करने के लिए माघ मेला को कुम्भ के रूप में आत्मसात किया।"
इन ऐतिहासिक तथ्यों के आलोक में देखें तो आज का वर्तमान कुम्भ मौलिक रूप से सर्वप्रथम बौद्धों के द्वारा स्थापित महादान का एक महापर्व था। जिस दिन यह पर्व अपने मौलिक रूप को पुनः उपलब्ध होगा भारत फिर विश्वगुरू होगा।