पत्रकारिता बनाम चाटूकारिता. कड़वी सच्चाई


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जी हां ऐसा इसलिए कह रहे है पीड़ितों की बात सुनने के बजाय लोग पत्रकारिता को शर्मसार कर चाटुकारिता में लगे है और थाने व चौकियों से खबर उठाकर प्रकाशन कर रहे है। उसके पीछे की सच्चाई नही दिखाने चाहते और दिन-भर थानों में चक्कर लगाते रहते है या फिर मोबाइल पर कॉल कर खनन माफिया, मार-पीट, मर्डर में आरोपी फरार हो तो बिना सबूत के पिट पीटकर ब्यान लेना - मर्डर जैसे केस में फर्जी के नाम डालना-हटाना व अन्य मामलों के समझौते करवाते है और उसकी कीमत वसूली जाती है। हालांकि इसमे हिस्सेदारी कई महानुभावो की होती है। यही नही इन खेलों में बेगुनाहो को भी मुलजिम साबित कर दिया जाता है। उत्तर प्रदेश के सभी थानों में ये खेल बड़े पैमाने पर चल रहा है। कुछ माह पूर्व थाना प्रभारी को रुपये न दिए जाने कारण थाना प्रभारी ने एक निर्दोष को मुलजिम साबित कर जेल भेज दिया और अपना गुडवर्क दिखाया लेकिन बिना जुर्म के सजा काट रहे पीड़ित ने हरदोई जेल में फांसी लगा कर शासन प्रशासन को अपनी जान गवा कर सूचित किया कि मैं बेगुनाह हूँ। लेकिन अब न जनपद से कैडल मार्च निकाला गया, न कोई सड़को पर उतरा और यही नही न कोई संगठन - न कोई यूनियन दिखाई दिया। केवल होड़ लगी रहती है इन सब की बड़े बड़े पेपरों व न्यूज चैनलों में नाम, फोटो दिखाई दे। 
अब सवालो की बारी है कि -
क्या फांसी लगाने वाला व्यक्ति किसी लड़का, भाई, पति, किसान  या इंसान नही था?
आखिर वर्दी की आड़ के एक थाना प्रभारी ऐसा कैसे कर सकते है?
क्या इंसानियत केवल मदर डे, फादर डे, सरदार जयंती, गांधी जयंती, गणतंत्र दिवस में ही बड़ी बड़ी बातो का सैलाब आता है?

जिन गरीबो की मदद से अमीरो के रहने के लिए आशियाने बनते है-उनकी आवाज दबाने के लिए दोषी  कौन है?

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